खोया चश्मा : पाया नज़रिया
चश्मा भूल आयीं थीं अपना धुप का
थोडा खिंचा सा था रंग उनके रूप का
बोलीं जहाँ छोड़ा वहां नहीं मिल रहा
कैसे बताऊँ अब ठीक नहीं लग रहा
पूछ चुकी सबको पता नहीं किसीको
कल ही तो ख़रीदा था हमने इसको
हैरत हो चली की हुआ क्या है इन्हें
अभी यहाँ आये ही हुवे हैं कुछ महीने
बोलीं देखो में कुच्छ भूलती नहीं
खोना ही लिखा था तोह लिया ही नहीं
खुद छोड़ाये और अब भुनभुनाते हो
आप हमारी समझ नहीं आते हो
बोलीं नजर को नज़र से बचाने वाला है
अगर सच्चा है तो खुद आने वाला है
देखा दरवाज़े पे गार्ड आया था
धुप का चश्मा साथ लाया था
बोलीं अब तक तो इसने मेरी नज़र को नज़र से बचाया है
पर आज अब यह मुझे मेरे नज़रिए से बचाने आया है
अपनी भूल को भी अपनी परीक्षा बना ली
खोयी चीज़ आकस्मिक है आज पा ली
कहीं किसी अपने को तो नहीं छोड़ आओगे कहीं
उसकी सच्चाई और फिर अपनी किस्मत को अजमाओगे कहीं
बोलीं नज़रिया बदल लिया अब न कोई अजमाइश है
जो खोया ही ना हो और जो पाया ही ना हो तो फिर क्या है
नहीं समझ पाता में इतनी महीन बातें
हैरत में गुज़र जाती हैं रातें
चश्मा ना लगाया कभी धुप का
अंदाज़ा भी नहीं उस रूप का
क्या खोया और क्यूँ पाया
नहीं समझ आया, नहीं समझ आया
बोलीं एक बार इस चश्मे को लगा के देखो
नज़र नहीं नज़रिए को निहार के देखो
चमक दमक से बचा के देखो
सच एकदम साफ़ नज़र आएगा
हम कभी किसी को खोते नहीं ना ही पाते हैं
हमारे अपने बस अपने वक़्त से ही आते हैं
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