डूबता सूरज: आती दिवाली
लगता है अकेला वोह मैं ही नहीं जो रोज यूं डूबता है
पर देखो डूबने डूबने में भी तो काफी गहरा फर्क है
वोह डूब कर भी फिर हर सुबह उदित हो जाता है
वोह तो उग आता है रोज़ और एक मेरा यह मन है
समय की धार पे एकांत की नांव पर बहता जाता है
आसमान की आँखें उसके डूबते सुर्ख़ हो जाती हैं
लगता है मेरे दर्द से ही इतनी लाल हो आती हैं
लाली के बीच ही आसमान में अब कालिख हो रही है
रो ही न पाई आँखें तो अब सुर्ख़ से सुरमई हो रही हैं
काले हो चले बादलों के बीच अब चाँद मुस्करा रहा है
बोला क्या डूबने और उगने का अर्थ समझ आ रहा है
सुनो सुनो हे मनुज ! बीतते जाते समय की हो रही पदचाप
गिरना उठना गिर गिरके उठ जाना ही प्रकृति का है पश्चाताप
निकलो अब बाहर इस गिरने और उठने के मायाजाल से
सीखलो मेरे जैसे सागरों को खींचना अपनी वजन-चाल से
समय की ना तो कोई धार है और ना एकांत की कोई नौका है
यह सब तुम्हारी अपनी सोच का ही बुना बारीक एक धोखा है
अथाह समय-समुद्र को मंथ खोज निकालो एक सच्चा मीत
हारते हूवे जीवन में साथ हो जिसके हर पल बस जीत ही जीत
आजमाना हो तो यहीं आना फिर देखने अब अमावस्या को
सूरज डूब जायेगा मैं नहीं आऊँगा देखना शांत पूरे सागर को
हर बूँद में इसकी मेरी तरंग है और हर तरंग में बस मैं हूँ
कह दो अब मेरे दोस्त वो डूब गया तो क्या आज साथ मैं हूँ
कल मैं फिर नहीं आऊँगा उम्मीद है सागर को शांत नहीं रहने दोगे
हर बूँद को अपनी तरंग और अपनी रौशनी से तुम दिवाली होने दोगे
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